उठो, जागो और तब तक मत रुको जब तक लक्ष्य की प्राप्ति न हो जाय

Swami Vivekananda

विवेकानंद ( 12 जनवरी 1863 – 4 जुलाई 1902 ) के प्रति मैंने हमेशा एक जिज्ञासु भाव रखा है। जब हाई स्कूल का विद्यार्थी था, तब मैं उनके प्रति आकर्षित हुआ और उनके बारे में जितना कुछ मिलता ध्यान से पढता। उनके जीवन के बारे में हम ने अपने पाठ्यक्रम में कुछ जान लिया था। उनका चित्र सम्मोहित करता था। एक शांत -चित्त, स्वस्थ और सुन्दर युवा चेहरा बरबस बुद्ध-मूर्तियों की याद दिलाता था। एक पददलित देश -समाज मानो उनके व्यक्तित्व में अपनी पहचान अथवा अस्मिता के साथ उभर रहा हो। वह आध्यात्मिक थे, सामाजिक -क्रांतिकारी भी। उन्हें अपने देश -समाज की चिंता थी और कुल मिला कर वह खुले दिमाग से सोचने पर जोर देते थे, जैसे कि बुद्ध देते थे। इसलिए मैं अपनी किशोरावस्था में विवेकानंद को बुद्ध और कार्ल मार्क्स के बीच रख कर देखता था। बुद्ध के बारे में उनका एक लम्बा लेख भी मैंने उन्ही दिनों पढ़ लिया था। ‘ भगवान बुद्ध और उनका धर्म ‘ शीर्षक उनकी एक किताब आज भी मेरे पास होनी चाहिए, जिस में वह लेख शामिल था। मार्क्स पर उनका सीधा तो कुछ नहीं है,लेकिन वेदान्तिक समाजवाद की-सी जो उनकी अवधारणा है उसमे मुझे मार्क्सवाद अन्तर्निहित प्रतीत होता था। फ्रांसीसी क्रांति के आदर्श ‘ समानता, भाईचारा और आज़ादी अथवा स्वतंत्रता ‘ को उन्होंने हिंदुत्व से जोड़ने की कोशिश की।

विवेकानंद के प्रति बाद के दिनों में भी मेरा आकर्षण बना रहा। जब बंगला रेनेसां का मैंने अध्ययन किया तब मुझे वह थोड़े अजूबे दिखे। इस धारा से कुछ अलग -थलग। बंगला रेनेसां भद्रलोक का वैचारिक आंदोलन था, जिसकी जड़ें यूरोपीय रेनेसां में थी। अपने हिंदुस्तानी हिन्दू उच्च वर्ग को, जो वर्णव्यवस्था में द्विज-लोक था, यह आंदोलन बदलना चाहता था। उनका आधुनिकीकरण करना चाहता था। यह आधुनिकीकरण उपनिवेशवाद केलिए किन्ही अर्थों में सहायक भी था। ब्रह्मो समाज इनका घोषित मंच था,जो मुश्किल से कोलकाता के दो सौ परिवारों से जुड़ा था। अंग्रेजी और संस्कृत के बीच झूलते इस आंदोलन के अग्रणी नेताओं की भारत के निम्न वर्गों से सहानुभूति थी, लेकिन उनसे स्पष्ट तौर पर इन लोगों ने दूरी भी बनाई हुई थी। उस वक़्त जॉब चार्नाक का बसाया हुआ कोलकाता शहर ब्राह्मणों और कायस्थों के सांस्कृतिक-वैचारिक अंतर्संघर्ष का केंद्र बना हुआ था। यह वही समय था जब महाराष्ट्र में जोतिबा फुले एक नए अंदाज़ के रेनेसां की पृष्ठभूमि रच रहे थे। सत्यशोधक समाज के नेतृत्व में चले इस सांस्कृतिक आंदोलन की जड़ें भक्ति आंदोलन में थीं और यह स्पष्ट रूप से बंगला रेनेसां से अलग चरित्र धारण करता था। यह किसानों-शूद्रों का सांस्कृतिक आंदोलन था। ब्राह्मणवाद विरोध इसकी धुरी थी। यह पूरब और पश्चिम के भारतीय रेनेसां अथवा नवजागरण का अंतर्विरोध था।
विवेकानंद बंगाली थे और स्वाभाविक तौर पर उन्हें बंगला रेनेसां का हिस्सा होना चाहिए था। लेकिन क्या वह ऐसा थे? मेरे अनुसार नहीं। वह थोड़े समय केलिए ब्रह्मो समाज से जुड़े, लेकिन वहां टिक नहीं सके। उनमे एक बेचैनी थी, जो आध्यात्मिक भी थी और सामाजिक भी। विवेकानंद फुले और अम्बेडकर की भांति सामाजिक-सांस्कृतिक तौर पर वह आहत थे। ब्राह्मण समाज कायस्थों को नीची निगाह से देखता था। कायस्थों ने मोगल मॉडर्निटी को आत्मसात कर लिया था। इसलिए ब्राह्मण उनसे नफरत करते थे। जब अंग्रेज आये, तब ब्राह्मणों के एक तबके ने उनसे नजदीकी प्रदर्शित की और उनकी मॉडर्निटी अपनाने की कोशिश की। इसकी प्रतियोगिता ब्राह्मणों और कायस्थों में चल पड़ी। लेकिन तभी ओरिएन्टलिज़्म की यूरोपीय वैचारिकी आई। इस में सांस्कृतिक रूप से कायस्थों को पिछड़ना ही था। फिर इसकी प्रतिक्रिया भी स्वाभाविक थी। यह एक विचित्र संघर्ष था।

इसी बीच कोलकाता के दक्षिणेश्वर मंदिर में एक नया प्रयोग हो रहा था। एक शूद्र महारानी द्वारा स्थापित उक्त मंदिर में कोई कुलीन ब्राह्मण पुजारी होना नहीं चाहता था। बाढ़ का मारा फटेहाल एक ब्राह्मण परिवार ठौर -ठिकाना खोज रहा था। उसने कुजात होकर भी उक्त मंदिर का पुजारी होना स्वीकार लिया। यह रामकृष्ण का परिवार था, जो बाद में रामकृष्ण परमहंस के नाम से विख्यात हुए। कालांतर में इन्ही रामकृष्ण ने वेदांत की एक नयी व्याख्या प्रस्तुत की और विवेकानंद के गुरु बने। सामाजिक रूप से यह उदार ब्राह्मण और चेतना -सम्पन कायस्थों का एका हुआ, जिसे विवेकानंद ने शूद्रों की तरफ अग्रसर करने की कोशिश की। रामकृष्ण ने वेदांत को जमीन पर उतारने की कोशिश की थी। उत्पीड़ित मनुष्यता में उन्होंने उत्पीड़ित ब्रह्म के दर्शन किये। आध्यात्मिकता को भौतिक आधार दिया। योग्य गुरु के योग्य शिष्य ने इसे लेकर एक बड़ा वैचारिक आंदोलन खड़ा किया। भौतिकता को विज्ञान और आध्यात्मिकता को मानव जाति की सम्पूर्ण चेतना से जोड़कर देखने की कोशिश की। उन ने आध्यात्म, विचार, संस्कृति और राजनीति की एक भारतीय संगीति स्थापित की। इसमें पुराना भी है और नया भी। पूरब भी है और पश्चिम भी। विज्ञान भी है और आध्यात्म भी। परंपरा भी है और विद्रोह भी।

विवेकानंद में बंगालियों में पायी जाने वाली जिद और भावना तो है, लेकिन संकीर्णता नहीं है। उन्होंने वर्ण व्यवस्था का प्रकट समर्थन नहीं किया, लेकिन फुले की तरह ब्राह्मणवाद का तगड़ा विरोध भी नहीं किया। हाँ, पददलित तबकों, जिसे धार्मिक-सामाजिक ढाँचे में शूद्र कहा जाता था, के विजय की स्पष्ट घोषणा जरूर कर दी। उनका उत्पीड़ित राष्ट्र उनके लिए महत्वपूर्ण था। वह उसकी सार्वभौम मुक्ति चाहते थे। लेकिन उनके गुरु की तरह उनका राष्ट्र लोग थे, न कि नदी और पहाड़ या कि ग्रन्थ या मंदिर-मस्जिद। उन्होंने धर्मों में बाँट कर लोगों को नहीं देखा। सभी धर्मों को एक ही मंजिल तक पहुँचाने वाला अलग अलग मार्ग बतलाया।

वह पहले आध्यात्मिक नेता थे जिन्होंने जोर देकर कहा कि शूद्रों का जमाना आने वाला है। भविष्य का भारत शूद्रों का होगा। जाति के नाम पर विवेकानंद को प्रायः उपालम्भ सुनने को मिलते थे। उनके बारे में कहा गया कि धर्मशास्त्रों का उन्हें पर्याप्त ज्ञान नहीं है और सनातनी हिन्दू परंपरा में उन्हें तो इसका अधिकार भी नहीं है। विदेश यात्रा के दौरान उन पर अभक्ष्य खाने के आरोप लगे। उन्होंने कभी इसकी परवाह नहीं की। उन्होंने कहा – “मैं एक परम्परानिष्ठ पुराणपंथी हिन्दू था ही कब ? मैंने धर्मशास्त्रों को ध्यान से पढ़ा है और जानता हूँ कि आध्यात्म और धर्म शूद्रों केलिए है ही नहीं। अगर कोई शूद्र विदेश यात्रा के दौरान खान-पान के बंदिशों का पालन करता है तो भी उसे कोई श्रेय नहीं मिलने वाला। ऐसी सारी कोशिशें बेकार हैं। मैं शूद्र हूँ और म्लेच्छ हूँ। फिर मुझे ऐसी बातों की चिंता क्यों होने लगी ?”

वह विवेकानंद ही थे, जिन्होंने अमेरिका में गर्व से अपने को हिन्दू कहा और भारत में ब्राह्मणों के समक्ष गर्व से अपने को शूद्र और म्लेच्छ कहा। आरएसएस और भाजपा उनकी एक उक्ति का तो इस्तेमाल करती है,लेकिन दूसरी का नहीं।

कुल मिला कर वह एक विद्रोही व्यक्ति थे। उन्होंने धर्म के क्षेत्र में प्रवेश किया, लेकिन उसके अर्थ को बदलने की कोशिश की। उन्होंने नफरत और अलगाव के नहीं, ज्ञान और विवेक के विस्तार की कोशिश की। उन्होंने अपने समय में ही उस साइंटिफिक टेम्पर पर जोर दिया था, जिसे बाद में जवाहरलाल नेहरू ने अपनाया। उन्होंने हमेशा आस्था के बजाय विवेक पर जोर देने की बात की। छुआछूत, पाखण्ड और पुरोहितवाद की उन्होंने बार -बार धज्जियाँ उड़ाई हैं। हिंदुत्व पर उनका जोर था, लेकिन सभी धर्मों का वह सम्मान करना चाहते थे। उनके लिए उनका हिन्दू होना शर्मिंदगी की बात नहीं थी। अपने भारतीय और हिन्दू होने पर उन्होंने गर्व अनुभव किया। लेकिन दूसरों को नीच नहीं माना। ईसाइयत, इस्लाम और बौद्ध धर्म के महत्व को उन्होंने रेखांकित किया है।

सामाजिक-राजनैतिक स्तर पर एक सशक्त भारत उनका स्वप्न था। दुखद है कि उनका सांप्रदायिक ताकतों द्वारा गलत इस्तेमाल किया जा रहा है। आरएसएस उन्हें विकृत रूप में रखने की निरंतर कोशिश में लगा है। उनका हिन्दू सावरकर के हिन्दू से अलग है, जैसे फुले और गाँधी का हिन्दू है। विवेकानंद की संगत फुले,गाँधी,आम्बेडकर के साथ बनती है; न कि सावरकर और हेडगेवार के साथ। उनमे कुछ अंतर्विरोध अवश्य थे, लेकिन कुल मिला कर वह वाकई युवा चेतना के प्रतीक विद्रोही व्यक्तित्व हैं। मात्र 39 साल के जीवन में उन्होंने समाज और इतिहास पर अमिट लकीर खींच दी है।
उनके जन्मदिन पर उनकी स्मृति को नमन।

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