“घिस रहा है धान का कटोरा” लक्ष्मीकांत मुकुल का सद्य प्रकाशित काव्य संकलन है। इसमें छोटी- बड़ी पचहतर कविताएँ संग्रहित हैं, अंतिम कविता भोजपुरी भाषा में है। पुस्तक का नाम व्यापक अर्थ अभिव्यंजित करता है। हालाकि उड़ती नजर डालने वालों को यह नाम विभ्रम में डाल सकता है और वे इसे थोड़ी देर के लिए भूगोल, कृषि अथवा अर्थशास्त्र से जुड़ी पुस्तक समझने की भूल कर सकते हैं। वैसे मुकुल जी को इतिहास और भूगोल में गहरी रूची है और स्थानीय इतिहास तथा भूगोल का विस्तृत ज्ञान है। यह दिगर बात है।अपनी बात यह है कि पुस्तक का नाम ‘ घिस रहा है धान का कटोरा ‘ संकलन के विषय, कथ्य और मिजाज को सांकेतिक अभिव्यक्ति देता है तथा पुस्तक के उद्देश्य को अर्थ देता सटीक लगता है। पुराने जमाने से ही कैमूर, रोहतास , भोजपुर तथा बक्सर का इलाका अपनी उर्वर भूमि और कृषि उत्पाद के लिए जाना जाता है। धान का उत्पादन अधिक होने के कारण यह धान का कटोरा कहा जाता है। इस संकलन की कविताएँ इसी क्षेत्र के लोगों के जीवन तथा वहाँ के इतिहास को केन्द्र में रख कर रची गई हैं। “घिस रहा है” एक विशेष अर्थ देता है और कविताओं से गुजरने पर इसका अभिप्राय प्रकट हो जाता है कि यह कटोरा घिस क्यों रहा है? इसके क्षरण के लिए कौन जिम्मेदार है? वस्तुतः घिसना एक अनवरत, लम्बी तथा धीमी प्रक्रिया है, जिसका आभास नहीं होता। यह अंतत: विलोपन की ओर ले जाती है। पुस्तक वहाँ को लोकजीवन, वहाँ की पारिस्थितिकी, संस्कृति का जीवंत चित्र प्रस्तुत करती हैं तथा बदलते समय में जटिलतर होते सामान के यथार्थ से भी रूबरू कराती है, परिवेश की चित्रमयता तथा उसका डिटेल ऐसा आभास कराता है कि पाठक कवि की ऊँगलियाँ पकड़ कर खेतों, पगडंडियों, गलियों, नदी- नालों के आरों से गुजर रहा है। कवि ने वहाँ बोली जाने वाली सीधी – सरल भाषा का प्रयोग किया है और दुरुह शब्दों अथवा कृत्रिम मुहावरों के प्रयोग से परहेज किया है। उस क्षेत्र का अतीत और वर्तमान अपने ठेठपन के साथ प्रस्तुत हुआ है। संकलन में प्रेम पर भी कविताएँ हैंं, जो प्रेम के उदात् रूप को नए अंदाज में नए अनछुए प्रतीकों के द्वारा अभिव्यजित करती है। कवि ने लोक जीवन और उसकी विसंगतियों को सैलानी पंछी की तरह विहंगम दृष्टि डाल कर नहीं देखा हैै। वरन उस परिवेश में आँखें खोलने वाले, उसमें डूबने – उतराने वाले व्यक्ति के रूप में उसके यथार्थ को महसुसा है, एक नई दृष्टि से ग्रामीण परिवेश को देख-समझ कर उसके यथार्थ का प्रतीकों के माध्यम से काव्यांकन करने का प्रयास किया है। गाँव कवि के हृदय में बसा हैै, किन्तु उसकी दृष्टि कहीं भी भावुकतापूर्ण तथा सब्जेक्टिव नहीं है। वह आधुनिक, वैज्ञानिक तथा तर्क पूर्ण है, तभी वह ग्राम जीवन के यथार्थ की सच्ची अनुभूतियों को अभिव्यक्त करने में सक्षम हो पाया है, वंजर होती जा रही धरती, अतिक्रमित उच्छेदित होते जंगल, मनुष्य के आक्रामक स्वार्थ के सामने हाथ जोड़ती प्रकृति कवि को विचलित और दुखी करते हैं। इसी दुख को कवि ने
‘फिर आएगा बुकानन’ कविता में व्यक्त किया है_ ‘कोइलवर घाट पार करते वह पाएगा कि सोन में कितनी कम बची है धार ‘
यहाँ वह गाँव को एक स्वप्नजीवी कवि की दृष्टि से नहीं वरन एक भूगोलवेत्ता की दृष्टि से समाजसुधारक की तरह किसान के पक्ष में खड़े हो इतिहास के संदर्भ में देखता है और यथार्थ को ढूंढने का प्रयास करता दिखता है-
” वह अचरज से भर जाएगा यह पा कर कि अंग्रेजों से लूटने में कितने माहिर हैं यहाँ के मुखिया – सरपंच – अफसर- मंत्री
[ फिर आएगा बुकानन ]
साहित्य का उद्देश्य बेहतर मनुष्य का निर्माण है। वह मानवीय संवेदनाओं की तीव्रता को सशक्त करता है तथा मानवीय संवेदना का आलोक जहाँ कहीं भी उपस्थित हो उसका दर्शन कराता है,जब हिंसा और आत्याचार की धधकती ज्वाला में मानवता विकलांग और विवश हो जाती है। ऐसे समय में भी मानवीय संवेदनाएँ जीवित बची रहने का साक्ष्य प्रस्तुत करती हैं-
” हत्यारों की हबस से लाल हो गई थी कामनात
तुम्हे बचाने नहीं आए थे पैगम्बर न
कोई फरिश्ते “
[ जोल्लह लूट में बचे बदरुदीन मियाँ ]
ऐसे समय में इंसानी छतरियों – सा तन कर बचा लेते हैं। काफिर समझे जाने वाले पंडितजी म्लेच्छ कहे जाने वाले मुहल्ले बदरुद्दीन मियां को ढेर सारी विसंगतियों को ओढ़ते विछाते ग्रामीण जन के हृदय में बची शाश्वत मानवीय संवेदना और करूणा में कवि का विश्वास झलक जाता है।
अपने समय की घटनाओं से कवि निरपेक्ष नहीं है। सन् 2021-22 में आंदोलन कर रहे किसानों की समस्याओं और उनके संघर्ष को उकेरती है कविता “दिल्ली के सड़कों पर किसान” परिवार की खुशहाली की तलाश में दुखों के पहाड़ लादे सिर पर सुदूर देश जाने वाले किसान पुत्रों की पीड़ा बयान करती है “बिहारी” कविता , कभी गुलजार रहा राजस्थान का कुलधरा गाँव आज विरानी का प्रदर्श बन कर रह गया है। इसी गाँव का रूपक लेकर लिखी कविता ” कुलधरा के बीच मेरा घर ” पलायन से विरान होते गाँव का चित्र उकेरता है।
कवि मनुष्य द्वारा प्राकृति के अंधाधुंध दोहन और अतिक्रमण से आहत है और भविष्य के प्रति आशंकित_
“बाइसवीं सदी में खो गई होगीं नदियाँ
रेतीले तलछटों में”
[ बाईसवीं सदी में ]
पर्यावरण की चिन्ता ‘ जहर से मरी मछलियाँ ‘ , ‘ किसने कैद किया जल धारों को’ , ” विलख रही यमुना की नीली जलधारा” जैसी कविताओं में करुणामयता के साथ प्रकट होती हैं। स्थानीय भूगोल के विविध प्रसंग अनेक कविताओं के उपादान बन कर है। यह एक प्रकार से नया प्रयोग है। स्थानीय इतिहास में मुकुल जी को न केवल गहरी रुची है। वरन, वे कविताओं में इतिहास का उत्खनन करते दिखते हैं। इतिहास के प्रति उनका दृष्टिकोण आलोचनात्मक है। वे इतिहास को भविष्य के निर्माण के संदर्भ में देखते है उसमें जीने के लिए नहीं कहा जाता है कि जीवन को समझने के लिए पीछे की ओर देखना होता है और जीने के लिए आगे की ओर प्रेम मनुष्य की पहचान है प्रेम मानवीय संवेदनाओं को
उर्जित करता है। विकट परिस्थितियों में भी आशा और
विश्वास टिकाए रखता है तथा जीवन की कठोरता के बीच भी कौमल्म की अनुभूति जीवित रखता है। साहित्य और कला का उद्देश्य प्रेम को विस्तार देना और मानव हृदय को और अधिक संवेदनशील बनाना है। संकलन में प्रेम पर कई कविताएँ हैं । जो प्रेम को बेहद संवेदनशीलता तथा सूक्ष्मता से उकेरती हैं। यहाँ प्रेम के मांसल रूप का एक भी रेशा नहीं
दिखता। कवि की प्रेमिका का कोई पार्थिव पहचान नहीं है। वह उसे-
“यादों में खोजता है,
कभी प्रतीकों में,
तो कभी भूले बिसरे प्रतीकों में”
[ बिंध प्रतिबिंब ]
यहाँ प्रेम एक नया जीवन ले कर आता है जैसे-
पेड़ो में आते हैं
नन्हे दुस्से
खलिहान से आती है
नवान्ह की गंध
तुम आती हो खयालों में
[ पहली बार ]
प्रेम का एक दार्शनिक पक्ष भी है। वह हृदय को नए आलोक से भर देता देता है, प्रेमी एक नई दृष्टि पा लेता है-
“जब तुमने कहा कि
तुम्हे तैरना पसंद है
मुझे अच्छी लगने लगी नदी”
[ देखना फिर शुरू किया दुनिया को ]
कवि का प्रेम वायवीय नहीं, वह प्रेम के उत्कर्ष को प्रतिकात्मक अविव्यंजना देते कहता है जैसे-
“बाढ़ से बौराई दो नदियाँ
आपस में खो जाती हैं मुहाने पर
गुथ्थम गुथ्थ”
प्रेम का एक और रूप मिलता है दशरथ माझी के अथक प्रयास में, उनके अदम्म जिजीविषा में-
“तुम्हारे नाम से जीवंत होती है
बर्बर युग में
प्रेम की संकल्पना “
[ अदम्य इंसान थे दशरथ बाबा ]
कवि उस कवि को भी याद करता है जिसने-
“जिसने समझाया हिन्दी कविता में
स्थानीयता का बोध
निजता में विश्व दृष्टि का फलक”
कविता में उस कवि का नाम नहीं है किन्तु ‘यहाँ से देखो’ तथा माझी के पूल को संदर्भ स्पष्टतः केदारनाथ सिंह की ओर संकेत करदेते हैं।
संकलन की पहली कविता ‘छोटी लाइन की छुक -छुक गाड़ी’ को नॉस्टाल्जिक भाव से याद करता अपने स्मृतियों का उत्खनन करता दिखता है और रेलगाड़िओ में आए बदलाव के साथ लोगों के व्यवहार और उनकी मानसिकता में हुए बदलाव की ओर संकेत करता है।
“घिस रहा है धान का कटोरा” सतरह खंडो में बंटी एक लम्बी कविता है। इसी कविता से इस संकलन का नाम भी लिया गया है। यह धान का कटोरा किसी क्षेत्र विशेष का ही नहीं,कहीं का भी हो सकता है धान का कटोरा-
” पहाड़ों की घाटियों-तलहटियों में
समतल मैदानों में
राह बदल चुकी नदियों की छाड़न में”।
घिसना परिस्थिति जन्य एक धीमी प्रक्रिया है।इसका आभासजल्दी नहीं होता। उस क्षेत्र के लोगों के जीवन, उनकी आर्थिक स्थिति, कृषि और संस्कृति में हो रहे क्षरण तथा विहपण को यह शब्द सटीकता से प्रतिकात्मक – अविभ्यक्ति देता है। किसानी छोड़ श्रमिक बनने के लिए औद्योगिक नगरों की ओर पलायन को विवश युवा, साम्राज्यवादी बाजार का बसता शिकंजा, बदलती कृषि व्यवस्था से ध्वस्त होती ग्रामीण संरचना के रंग रेशे इस कविता में विन्यस्त हैं। इस कविता में कवि अतीतजीवी नहीं है, उसका उद्देश्य-
“अन्न तृप्ति की पहचान की बुनियाद
बचाने का भरसक प्रयास”
के लिए प्रेरित उत्साहित करना है. वह ठहरकर सोचने के लिए कहता है, कि-
“कि आने वाले दौर में
किसान विरोधी दतैले चूहों के
बील में कौन डालेगा पानी”
स्पष्टतः यह मानवता विरोधी शक्तियों से दो-दो हाथ करने का अह्वान है।
संकलन की अंतिम कविता “भरकी में चहुंपल भईंसा” भोजपुरी में है। यह अटपटा लग सकता है, किन्तु यदि भोजपुरी को हिन्दी की सखी भाषा मा उपभाषा मान लें तो इसकी उपयुक्तता समझ में आ जाती है। भाषा महत्वपूर्ण नहीं है। महत्व की बात है इस कविता का लक्ष्य और शैली तथा रौंदी जा रही कृषि व्यवस्था, घायल होते ग्राम जीवन की अभिव्यंजना खेतमें पहुँचा भैसा कौन है? किसका प्रतीक है? स्पष्टता यह भारतीय कृषि व्यवस्था को बेमरौवत रौंदने वाला साम्राज्यवादी शोषण का भैंसा है। इसे भगाने के लिए लोगों का आह्वान करते हुए कवि लोगों से प्रश्न करता
है कि भैंसे के कहर से स्वयं भागा जाय या इस अंधेरी रात में लुकार (मशाल जैसी चीज ) लेकर उसे भगाया जाए-
” भागल जाव कि भगावल जब ओके सीवान से
भकसाइन अन्हरिया रात में लुकार बांह के”
शब्दों की मितव्ययीता कविता की मांग होती है। इस संकलन की कविताओं से गुजरते हुए लगता है, जैसे कवि के जेहन में ढेर सारे शब्द व्यक्त होने के उछाल मार रहें हों और कवि उसके मोह से बच नहीं पा रहा हो। कई जगह शब्दों के विस्तार के कारण कविता बिखराव की ओर लुढ़कती लगती है। कविता की बुनावट में ठोसपन और चुस्ती वांछनीय गुण माना जाता है, इसका अभाव से प्रवाह और प्रभाव के बाधित होने की संभावना बन जाती है। वावजूद संकलन की कविताओं में उबाउपन नहीं है पाठक की दिलचस्पी बनी रहती है, निराला भाषा को भावों की अनुगामिनी कहते हैं। कविताओं में ग्रामीण (गवंई) संदर्भों, मुहाबरों के भाषा को भाव के अनुकूल बनाने के साथ पाठक को कविता के परिवेश में पहुंचा देते हैं, जिसे वह स्वयं देखने अनुभव करने लगता है।
कहा जाता है कि कविताएँ जीवन से निर्मित होती हैं, और जीवन के लिए होती हैं। यह संकलन ग्रामीण जीवन के अतीत, उसमें आए परिवर्तनों, उनके इर्ष्या,द्वेष, प्रेम सद्भाव, दुख-सुख, भावनात्मक सम्बन्धों की निश्छलता सभी को सजोए ग्रामीण जीवन का कोलाज लगता है। कवि गाँव तथा लोक जीवन को दुनिया से काट कर, आइसोलेशन में नहीं देखता। वरन, भूमंडलीकरण के दौर में साम्राज्यवादी बाजार के घात- प्रतिघातों तथा तत्जनित विद्रुपणों तथा संकुचनों के संदर्भ में देखता हैं और इसकी अनुभूति को चित्रमय काव्याभिव्यक्ति प्रस्तुत करता है।
कविता-संग्रह :- ‘घिस रहा है धान का कटोरा’
कवि :- लक्ष्मीकांत मुकुल
प्रकाशक :- सृजनलोक प्रकाशन,नई दिल्ली-110062
मूल्य :- ₹299/-, पृष्ठ :-168, वर्ष :- 2022 ई.
समीक्षक : – शैलेंद्र अस्थाना